Sailaab - 1 in Hindi Moral Stories by Lata Tejeswar renuka books and stories PDF | सैलाब - 1

Featured Books
Categories
Share

सैलाब - 1

सैलाब

लता तेजेश्वर 'रेणुका'

अध्याय - 1

शतायु पलंग से उठ कर बैठा। नींद न आने के कारण वैसे भी परेशान था, ऊपर से गरमी। कुछ देर पहले ही बिजली गुल हो गई थी। आधी रात को बिजली चले जाना वहां कोई नयी बात नहीं थी। शहर से दूर स्थित, उसके गाँव में अक्सर दिन में आधे समय इलेक्ट्रिसिटी का गुल रहना आम सी बात है। बिजली गुल होते ही मच्छरों का राज शुरू हो जाता था और उनका काटना भी सहना पड़ता था।

शतायु ने खिड़की से बाहर देखा, बाहर सन्नाटा छाया हुआ था। चाँद, रात के भय से कहीं चुपचाप बादलों के बीच छुप गया था। गहरे अन्धकार में लम्बे घनेरे पेड़ खूब भयानक दिख रहे थे, हवा में लहराते हुए उन पेड़ों की डालियाँ उनके अंग अंग डोलते हुए नृत्य कर रहे थे। सरसराती हुई हवा से उन पेड़ों की परछाईयाँ, ऐसी नज़र आ रही थीं जैसे सन्नाटे में लहराते हुए, वे हाथ पसारे किसी अनहोनी को दावत दे रहे हों। दूर से उल्लू की चीख और चमगादड़ की फड़फड़ाहट रात को और भी भयानक बना रही थी। घने बादलों के बीच से निकलता हुआ चाँद बादलों से छुपाछुपी खेल रहा था। शांत शीतल हवा अलकों को सहला रही थी।

औरों की तरह शतायु का भी एक हँसता खेलता परिवार था। उसके घर का आँगन कभी सूना नहीं रहता था। माँ के हाथ की बनाई हुई रंगोली और रात रानी की भीनी-भीनी खुशबू एक साथ सुंदरता और महक बिखेर देते। माँ, बाबूजी, दादा दादी, मौसी सब के साथ ख़ुशी ख़ुशी जिंदगी कट रही थी।

शतायु के पापा भोपाल की एक निजी कंपनी यूनियन कार्बाइड में मेकैनिकल इंजीनियर थे। उस कंपनी में काम करते हुए कई लोग अपनी जिंदगी बसर कर रहे थे। एक अच्छी जिंदगी जीने के लिए जितना जरुरी था उतना अपने परिवार के लिए कमा लेते थे। कंपनी की परिधि में रहते इनका कंपनी के प्रति पूरा समर्पण भाव था क्यों कि उसी से उनकी जीवन का हर जरुरत पूरी होती थी लेकिन शायद खुदा को कुछ और मंजूर था। एक मानवीय दुर्घटना ने अभिशाप की तरह कहर बरसा दिया। एक दिन उसी कंपनी के कारण कई घर उजड़ गये। बच्चों की जिन्दगियाँ रेगिस्तान में पानी के लिए तड़पते पथिक की भांति पिता माता के स्नेह के लिए तड़पती रह गई। क्या बच्चे क्या बुजुर्ग अपनों को खो कर बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी। तब से कई बच्चे और बड़े अनाथ, लाचार, अपाहिज की तरह एक अच्छे जीवन के लिए तरसते रह गए हैं। आज भी भोपाल की मिट्टी पानी व वायु में जहर इस तरह से घुला हुआ है कि तीन पीढ़ियों से लोग अभिशाप ग्रस्त जीवन भोगने को मजबूर हैं।

रात के करीब दो बजे थे। रात भर उसकी आँखों से नींद ओझल हो चुकी थी। मन बेचैन, दिमाग में तरह तरह की यादें उसे परेशान कर रही थीं। मन में लाखों विचार, कभी इधर से उधर, कभी उधर से इधर पलंग पर करवट लेते शतायु असहनीय महसूस करने लगा था। दिमाग न जाने क्या क्या सोच रहा था। गुजरे कल की कुछ तस्वीरें मन के पटल पर रह रह कर दस्तक दे रही थी। वह किसी भी तरह रात के गुजर जाने का इंतज़ार कर रहा था। ऐसी न जाने कितनी भयानक रातें आकर गुज़र गयी हैं उसकी जिंदगी में। फिर भी हर बार वही यादें, वही रातें, वही भयानक सपने रह रह कर उसके मन में उथल पुथल मचा कर रात रात भर उसको परेशान करते थे। कुछ कड़वी यादें मन में आते ही दिल को निचोड़ कर रख देती थी। रात को चौंकते हुए उठ जाना तो उसकी आदत में शामिल हो गया था।

***